रोड पर फर्राटा भरती जर्जर डीटीसी बसें, आए दिन हादसों को दे रहीं हैं दावत
वैभव शर्मा , नई दिल्ली
वैभव शर्मा , नई दिल्ली
वैभव शर्मा , पानीपत
बीते कुछ समय से सिनेमा जगत में एस्पिरेंट्स पर आधारीत फिल्मों और वेब सीरीज़ का अंबार लगा है और इनके पार्ट 2 पर भी काम चल रहा है। जिससे ये समझा जा सकता है कि सिनेमा जगत के लिए अब यू.पी.एस.सी, एस.एस.सी और अलग- अलग प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे एस्पिरेंट्स एक टारगेट ऑडियंस हैं।
छुट्टी का दिन था सुबह से शाम हो गई थी, मैं अपना बिस्तर छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहा था । आलस से भरा मैं भूखा तो था पर उठकर कौन अब खाना बनाए या बाहर से लेकर आए ? सो बार- बार उठता और फिर सो जाता। जब भी आंख खुलती पेट के चूहे यही इशारा करते, कुछ खा लो । क्यों हम भोले-भाले चूहों को भी भूखा रख रहे हो ? बहुत जतन के बाद थके बदन को समझाया खाना कितना जरूरी है शरीर के लिए, कुछ खा लो। हाथ में मोबाइल था जो अमूमन हाथ में ही रहता है, मोबाइल में स्वीगी खोला और खाने की तलाश शुरू कि गई। जब उंगलियों को बाहर से खाना मंगवाने का आदेश मिल ही गया था सो उंगलियों ने भी कोई कसर ना छोड़ी और दिखाने लगी महंगे- महंगे पदार्थ। ये गगनचुंबी खाने के दाम देखकर लगा अगर महंगा खाना ही खाना है तो क्यों ना घर के नीचे बने हल्दीराम रेस्त्रां में ही जाया जाए, वैसे भी उनके छोले- भटूरे बहुत मश्हूर हैं।
मेरी डायरी आज तुम्हें एक आँखों देखी कहानी सुनाऊंगा, सोनी नोएडा के मेट्रो स्टेशन के बाहर फूल बेचती है, वो महज़ 6 साल की है। जिस उम्र में उसे अटखेलियां दिखानी चाहिए थी, उस उम्र में वो दिन के 5 से 6 घंटे स्टेशन के बाहर लोगों से फूल खरीदने के लिए मिन्नते करती है। सोनी के परिवार में 6 सदस्य है, उसका परिवार मेट्रो स्टेशन की सिढ़ियों के नीचे सोता है और ये तब ज्यादा भयावह हो जाता है जब सर्दियों का मौसम चल रहा हो। परिवार के 6 सदस्यों के पास 3 कंबल हैं जिसमें वो 6 लोग मुश्किल से ही सो पाते हैं।
महानगर ऊंची इमारतों से घिरता जा रहा हैं। हर दिन कोई नई परियोजना महानगर को महानगर होने का अहसास कराती है। हर कोई निकला है अपने गांव से, कुछ बेहतर की तलाश में, शायद उन्हें महानगर उस बेहतर का पैमाना लगता है। ऊंची इमारते, शाही सवारी, विशाल बैंक बैलेंस और फर्राटे से दौड़ती ज़िंदगी, सुनने में लुभावनी तो है। एक बार मन तो करता है जाकर देखा जाए कैसा है ये महानगर ?
ये वाक्य भारत के घरों में सामान्य- सा हो गया है। एक लड़की से ये अपेक्षा ही नहीं कि जाती कि वह भारी सामान उठाए, रात में कोई काम हो तो बेटे की तरह बाहर जाए, सुरक्षा की दृष्टि से भी लड़कियों को कहीं-ना-कहीं पीछे कर दिया जाता है। पर क्या हम एक पूरी कौम को अयोग्य घोषित नहीं कर रहे हैं ?
एक ओर भीड़ लगी हो, दूसरी ओर आप अकेले हों, तो भयभीत होना ठीक नहीं। एक पूरी जमात जो गलत रास्ते पर है या कहें जो काम वें कर रहें हैं वो आपका दिल गवाही नहीं देता तो आप उनसे अलग होकर चलिए। अकेले चलने में रास्ता आसान बिल्कुल नहीं है, ना कभी था, पर मन की आवाज़ के विपरीत चलकर किया काम भी ठीक नहीं है। अकेले रहकर भी हर वो चुनौती पार कि जा सकती है, जो साथ में हो । बस अकेले चलने में आपका दिल मजबूत होना जरूरी है। एक बार जो ठान लिया मुड़ने का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता, अगर आप इतना बल रखते हैं, तो अकेले चलिए। दुनिया के विभिन्न धर्मों की सीख में, कविता में, साहित्य में अकेले चलने का जिक्र है।
अधिकतर लोगों को बाज़ार जाना, नया सामान खरीदना बहुत पसंद होता है। उन्हें बाज़ार की चमक बहुत लुभावनी लगती है, वें बाज़ार में जब कुछ खरीदने जाते हैं तो जितना सोचा था उससे ज्यादा ही सामान लेकर वापस आते हैं। वें बिना जरूरत की चीज़ें भी दुकान के करीब से खरीदे बिना वापस ही नहीं जा पाते। उन्हें बाजार लुभाता है और फ़िज़ूलख़र्च करना उनकी आदत बन जाती है, जो आदत पूरे महीने उन्हें तंग करती है। बाज़ार का मुँह बहुत बड़ा है, जैसे त्रेता में सुरसा राक्षसी का था, बाज़ार हर उस व्यक्ति को अपने भीतर समा लेने को आतुर रहता है जो उसकी चमक-धमक से प्रभावित होतें हैं। मेरे भी बहुत से ऐसे मित्र हैं जो उपभोक्तावाद के इस मायाजाल के शिकार है, उन्हें मैं एक ही बात अक्सर कहता हूँ "एक दिन ये बाज़ार तुम्हें खा जाएगा" और उनका भी तय जवाब आता है 'यार तुम कहते तो ठीक हो पर हम कोई सामान देखकर रुक ही नहीं पाते' और फिर महीने भर परेशान रहते हैं। ये लोग उपभोक्तावाद की संस्कृति के मारे हैं, जहां बाज़ार, कभी मुफ्त में मिलने वाले पानी को बोतल में पैक करकर बेच रहा है, ये लोग उसका प्रोत्साहन बनते हैं। ऑनलाइन बाजार का हाल तो परंपरागत बाज़ार से भी खराब है, वहां तो आपको बिना जरूरत की चीज़ें दिखाने के लिए पूरी तैयारी की जाती है और एक बार आप गलती से भी उस चीज़ पर क्लिक कर दें, तो हो जाता है खेल शुरू, फिर तो व्हाट्सएप से लेकर फ़ेसबुक, फेसबुक से ट्विटर, इंस्टाग्राम और जहां- जहां आपकी मौजूदगी है आपको वो सामान दिखाई देने लगता है और आप ना चाहते हुए भी उपभोक्तावाद के शिकार हो जाते हैं।आज के समय में जो व्यक्ति बिना जरूरत के सामान ना खरीदे और बाजार की चमक भी उसका कुछ बिगाड़ ना पाए तो वो मानव नहीं, महामानव है।- वैभव की डायरी
हर कोई अपने जीवन में बेहतर काम करने का इच्छुक होता है, अपने जीवन को सफल और आरामदायक बनाना चाहता है, पर इस लंबे सफर में ना जाने कितने ही पड़ाव पार करने पड़ते हैं। रोज़ सुबह उठने से लेकर रात तक में कुछ उत्पादक करना भी एक बड़ी चुनौती है। लोग भी अलग-अलग तरह का व्यक्तित्व रखते हैं, एक वो हैं जो कुछ काम ही करना नहीं चाहते, दूसरे जो काम तो करना चाहते हैं पर सिर्फ बातों तक ही सीमित रह जाते हैं, तीसरे वो हैं जो काम भी करते हैं और उन्हें कुछ काम ना करने पर अपराधबोध का सामना करना पड़ता है। इस पूरी प्रक्रिया में परिस्थिति और परिणाम भी बहुत महत्व रखते हैं, कभी लगता है पूरा जहां अपना है और कभी लगता है, ये काम मुझसे नहीं हो पाएगा। इसी कोलाहल के बीच काम करते रहना एक चुनौती भी है और कला भी।"कभी कभी तो नहीं दिखती कोई किरण,और कभी लगता है सब रास्ते हमारे हैं"- वैभव की डायरी