छुट्टी का दिन था सुबह से शाम हो गई थी, मैं अपना बिस्तर छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहा था । आलस से भरा मैं भूखा तो था पर उठकर कौन अब खाना बनाए या बाहर से लेकर आए ? सो बार- बार उठता और फिर सो जाता। जब भी आंख खुलती पेट के चूहे यही इशारा करते, कुछ खा लो । क्यों हम भोले-भाले चूहों को भी भूखा रख रहे हो ? बहुत जतन के बाद थके बदन को समझाया खाना कितना जरूरी है शरीर के लिए, कुछ खा लो। हाथ में मोबाइल था जो अमूमन हाथ में ही रहता है, मोबाइल में स्वीगी खोला और खाने की तलाश शुरू कि गई। जब उंगलियों को बाहर से खाना मंगवाने का आदेश मिल ही गया था सो उंगलियों ने भी कोई कसर ना छोड़ी और दिखाने लगी महंगे- महंगे पदार्थ। ये गगनचुंबी खाने के दाम देखकर लगा अगर महंगा खाना ही खाना है तो क्यों ना घर के नीचे बने हल्दीराम रेस्त्रां में ही जाया जाए, वैसे भी उनके छोले- भटूरे बहुत मश्हूर हैं।
मैंने अपने अलसाए शरीर को संस्कृत का एक श्लोक तोड़- मरोड़कर सुनाया कि “अलसस्य कुतो भोजनम्, अभोजनस्य कुतो सुखम् । असुखस्य कुतो विद्यम ,अविद्यस्य कुतः धनम्।।” कि मुझे भविष्य में अगर अमीर बनना है तो अभी खाना बहुत जरूरी है। मेरा शरीर भी मेरी ही तरह सरल स्वभाव का है, सो उसने भी बिस्तर छोड़ दिया, खाने की तलाश में। ज्यों ही मैंने बिस्तर से नीचे पांव रखा मेरे मन में एक सवाल उठने लगा कि कपड़े क्या पहनूं ? ये सवाल प्राय: बाहर जाते वक्त मेरे मन में कम ही आता है। कॉलेज जाना हो तो साफ शर्ट पहन ली जाती है और किसी पार्टी में जाना हो तो कभी- कभी पहने जाने वाले कपड़े । पर आज तो बस घर के नीचे वाले रेस्त्रां में ही जाना था मन इतना क्यों सोच रहा था ? चाय की टपरी पर जाते हुए तो कभी ये सवाल मन में नहीं आया ? सोहन के समोसे पर जाते हुए भी कभी कपड़े क्या पहनूं वाला सवाल नहीं आया, तो आज ऐसा क्या खास था ?
खास था कि आज महंगे रेस्त्रां में जाना है, वहां लोगों ने कैसे कपड़े पहने होंगे ये भी आंखों के आगे तैर रहा था। शायद इसलिए मैं भी ये सोचने लगा। फिर मैंने कोई साफ़-सी कमीज़ पहनी और पहुंच गया हल्दीराम। वहां के गेट पर एक जांच की मशीन लगी थी जिससे भीतर जाने पर मैं ऑर्डर करने काउंटर पर पहुंचा, आस-पास काफी सुंदर सजावट थी, मैंने छोले-भटूरे और रबड़ी रसमलाई का ऑर्डर किया जिसका बिल कुछ ₹ 262 का आया।
मैं टेबल पर बैठा तो एक गर्व की अनुभूति हो रही थी या यूं कहूं कि दो चीजों के लिए इतने पैसे देकर ऐसा लग रहा था कि कुछ तो बेहतरीन खाने को मिलेगा। मैं अकेला वहां गया था और खाना जब तक तैयार हो रहा था मुझे लगा कोई ख़बर पढ़ ली जाए। मैंने बी.बी.सी का ऐप खोला और इसराइल- ईरान में तनाव की ख़बर पढ़ने लगा और मन ही मन में बोलने भी लगा “These Wars should stop soon, they are dangerous to humanity” । मैंने अचानक ये ध्यान किया कि मैं मन ही मन में अंग्रेज़ी में क्यों बात कर रहा हूं ? जहां मेरी रुचि भारत की राजनीति से जुड़ी ख़बरों में रहती है ये मेरी उंगली अंतरराष्ट्रीय ख़बर पर क्यों पड़ी ? ये मेरे स्वभाव में अचानक से बदलाव क्यों आया ?
खैर खाना उम्दा था और साफ-साफ दिखाई दे रहा थी कि यहां हर चीज़ के पीछे एक विज्ञान है, चॉकलेट का रैक काउंटर पर इसलिए सिर्फ आधा मीटर ऊपर था ताकि बच्चों का हाथ चॉकलेट तक पहुंच सके और वें अपने मां-बाप से उसे खरीदने की ज़िद्द कर सकें। रेट लिस्ट के पास ही कॉम्बो ऑफर का बोर्ड लगा था जिसपर सामान्य खाना के दाम से कुछ ज्यादा चुकाने पर एक सॉफ्ट ड्रिंक या एक डेज़र्ट साथ मिल सकता था, जैसे मैं जो सिर्फ छोले-भटूरे खाने आया था पर थोड़े से पैसे ज्यादा देकर रसमलाई वाले कॉम्बो में फंस गया। वहां के पूरे वातावरण में वैज्ञानिक सिद्धांतों का इस्तेमाल था और क्या खाया जाए, क्या सोचा जाए, किस भाषा में सोचा जाए ये मानो कोई नियंत्रित कर रहा था। किसी ने इस उपभोक्ता मनोविज्ञान को पहले ही समझा हुआ था और वो मुझे एक जगह पर क्या कपड़े पहनूं से लेकर क्या खाने का चयन करूं, किस तरह की सामग्री वहां रहकर पढ़ूं और किस भाषा में वो सब नियंत्रित कर रहा था।
यही सोचते हुए मेरे अगले दो घंटे बीते और अब तुम्हें ये किस्सा सुना रहा हूं मेरी प्यारी डायरी...
- वैभव की डायरी
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