बेटा ये सामान भारी है, तेरा भाई उठा लेगा !
ये वाक्य भारत के घरों में सामान्य- सा हो गया है। एक लड़की से ये अपेक्षा ही नहीं कि जाती कि वह भारी सामान उठाए, रात में कोई काम हो तो बेटे की तरह बाहर जाए, सुरक्षा की दृष्टि से भी लड़कियों को कहीं-ना-कहीं पीछे कर दिया जाता है। पर क्या हम एक पूरी कौम को अयोग्य घोषित नहीं कर रहे हैं ?
बहन को ट्यूशन जाना है, तो क्यों भाई उसे लेने और छोड़ने जाएगा ? हम कब तक लड़कियों की लड़ाई में पुरुषों को उनका कवच बनाते रहेंगे ? कब तक भरे दरबार में द्रोपदी के चीर हरण पर पांडवों से ये अपेक्षा की जाएगी कि वें इस अनाचार को रोकेंगे ? क्या महाभारत काल में हस्तिनापुर के महल में महिलाओं की कमी थी ? या हमने कभी महिलाओं में ये विश्वास ही नहीं जगाया कि वें अपनी सुरक्षा या अपनी लड़ाई खुद लड़ सकें ?
इस विषय पर पुष्यमित्र उपाध्याय ने बहुत सुंदर लिखा है :-
छोडो मेहँदी खड्ग संभालो
खुद ही अपना चीर बचा लो
द्यूत बिछाये बैठे शकुनि,
मस्तक सब बिक जायेंगे
सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो, अब गोविंद ना आयेंगे |
कब तक आस लगाओगी तुम,
बिक़े हुए अखबारों से,
कैसी रक्षा मांग रही हो
दुशासन दरबारों से |
स्वयं जो लज्जा हीन पड़े हैं
वे क्या लाज बचायेंगे
सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो, अब गोविंद ना आयंगे |
कल तक केवल अँधा राजा,
अब गूंगा बहरा भी है
होठ सी दिए हैं जनता के,
कानों पर पहरा भी है |
तुम ही कहो ये अश्रु तुम्हारे,
किसको क्या समझायेंगे?
सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो, अब गोविंद ना आयंगे |
- वैभव की डायरी
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