महानगर ऊंची इमारतों से घिरता जा रहा हैं। हर दिन कोई नई परियोजना महानगर को महानगर होने का अहसास कराती है। हर कोई निकला है अपने गांव से, कुछ बेहतर की तलाश में, शायद उन्हें महानगर उस बेहतर का पैमाना लगता है। ऊंची इमारते, शाही सवारी, विशाल बैंक बैलेंस और फर्राटे से दौड़ती ज़िंदगी, सुनने में लुभावनी तो है। एक बार मन तो करता है जाकर देखा जाए कैसा है ये महानगर ?
पर कमाल की बात ये है कि कुछ वक्त इस सपनों के महानगर में रहने के बाद आदमी खोखला क्यों होने लगता है ?चलने के लिए गाड़ी तो जाती है, रहने के लिए 2/4 का कमरा भी और दिखाने के लिए कुछ महंगे ब्रैंड की घड़ियां, कपड़े और जूते भी, पर एक चीज़ जो आदमी को हमेशा खलती है वो है संतुष्टि। महानगर में आदमी देखा- देख में कई काम करता है, चाहे महंगे रेस्टोरेंट में खाना खाना हो या कम दूरी पर जाने के लिए भी पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल ना कर कैब करने की रीस। आदमी इन ढकोसलों में फंसा रह जाता है और इससे जन्मती है असंतुष्टि। गांव शायद पैसा कमाने के उतने अवसर तो ना दे रहा हो पर संतुष्टि और प्यार भरपूर दे रहा है।
महानगर में पयार्वरण दोहन की बात तो क्या ही करूँ, शायद कागज़ कम पड़ जाएंगे इसे बताते- बताते, पर यहां की ज़हरीली हवा और दूषित पानी का महिमामंडन खत्म नहीं होगा।
गांव को याद करते हुए कुमार विश्वास की एक सुंदर कविता के साथ तुम्हें छोड़े जा रहा हूँ मेरी डायरी...
"धरती काली अंबर पीला
कुदरत का हर एक पेंच है ढीला
शब्द शब्द बेशर्म प्रलोभन
कंठ कंठ बेहद ज़हरीला
बहुत सुना ये जीत हार का शहरी ज्ञान
मगर अब मुझको
घर से आंगन से पनघट से
तारों से बातें करनी है
लौट गया हूँ गाँव के मुझको
यारों से बातें करनी है
जोड़ लिया नाता गैरों से
ऐसी मत मारी है हमारी
बैंको में कुछ शून्य जोड़ कर
शून्य भावनाएं कर डाली
बहुत सुना ये जीत हार का
शहरी ज्ञान मगर अब मुझको
घर से आंगन से पनघट से
तारों से बातें करनी है
लौट गया हूँ गाँव के मुझको
यारों से बातें करनी है"
- वैभव की डायरी
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