अधिकतर लोगों को बाज़ार जाना, नया सामान खरीदना बहुत पसंद होता है। उन्हें बाज़ार की चमक बहुत लुभावनी लगती है, वें बाज़ार में जब कुछ खरीदने जाते हैं तो जितना सोचा था उससे ज्यादा ही सामान लेकर वापस आते हैं। वें बिना जरूरत की चीज़ें भी दुकान के करीब से खरीदे बिना वापस ही नहीं जा पाते। उन्हें बाजार लुभाता है और फ़िज़ूलख़र्च करना उनकी आदत बन जाती है, जो आदत पूरे महीने उन्हें तंग करती है। बाज़ार का मुँह बहुत बड़ा है, जैसे त्रेता में सुरसा राक्षसी का था, बाज़ार हर उस व्यक्ति को अपने भीतर समा लेने को आतुर रहता है जो उसकी चमक-धमक से प्रभावित होतें हैं। मेरे भी बहुत से ऐसे मित्र हैं जो उपभोक्तावाद के इस मायाजाल के शिकार है, उन्हें मैं एक ही बात अक्सर कहता हूँ "एक दिन ये बाज़ार तुम्हें खा जाएगा" और उनका भी तय जवाब आता है 'यार तुम कहते तो ठीक हो पर हम कोई सामान देखकर रुक ही नहीं पाते' और फिर महीने भर परेशान रहते हैं। ये लोग उपभोक्तावाद की संस्कृति के मारे हैं, जहां बाज़ार, कभी मुफ्त में मिलने वाले पानी को बोतल में पैक करकर बेच रहा है, ये लोग उसका प्रोत्साहन बनते हैं। ऑनलाइन बाजार का हाल तो परंपरागत बाज़ार से भी खराब है, वहां तो आपको बिना जरूरत की चीज़ें दिखाने के लिए पूरी तैयारी की जाती है और एक बार आप गलती से भी उस चीज़ पर क्लिक कर दें, तो हो जाता है खेल शुरू, फिर तो व्हाट्सएप से लेकर फ़ेसबुक, फेसबुक से ट्विटर, इंस्टाग्राम और जहां- जहां आपकी मौजूदगी है आपको वो सामान दिखाई देने लगता है और आप ना चाहते हुए भी उपभोक्तावाद के शिकार हो जाते हैं।आज के समय में जो व्यक्ति बिना जरूरत के सामान ना खरीदे और बाजार की चमक भी उसका कुछ बिगाड़ ना पाए तो वो मानव नहीं, महामानव है।
- वैभव की डायरी
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वैभव शर्मा , नई दिल्ली
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